महानदी के तट पर स्थित प्राचीन, प्राकृतिक छटा से भरपूर और छत्तीसगढ़ की संस्कारधानी के नाम से विख्यात् शिवरीनारायण जांजगीर-चांपा जिलान्तर्गत जांजगीर से 60 कि. मी., बिलासपुर से 64 कि. मी., कोरबा से 110 कि. मी., रायगढ़ से व्हाया सारंगढ़ 110 कि. मी. और राजधानी रायपुर से व्हाया बलौदाबाजार 120 कि. मी. की दूरी पर स्थित है। यह नगर कलचुरि कालीन मूर्तिकला से सुसज्जित है। यहां महानदी, शिवनाथ और जोंक नदी का त्रिधारा संगम प्राकृतिक सौंदर्य का अनूठा नमूना है। इसीलिए इसे ‘‘प्रयाग‘‘ जैसी मान्यता है। मैकल पर्वत श्रृंखला की तलहटी में अपने अप्रतिम सौंदर्य के कारण और चतुर्भुजी विष्णु मूर्तियों की अधिकता के कारण स्कंद पुराण में इसे ‘‘श्री नारायण क्षेत्र‘‘ और ‘‘श्री पुरूषोत्तम क्षेत्र‘‘ कहा गया है। प्रतिवर्ष माघ पूर्णिमा से यहां एक बृहद मेला का आयोजन होता है, जो महाशिवरात्री तक लगता है। इस मेले में हजारों-लाखों दर्शनार्थी भगवान नारायण के दर्शन करने जमीन में ‘‘लोट मारते‘‘ आते हैं।
ऐसी मान्यता है कि इस दिन भगवान जगन्नाथ यहां विराजते हैं और पुरी के भगवान जगन्नाथ के मंदिर का पट बंद रहता है। इस दिन उनका दर्शन मोक्षदायी होता है। तत्कालीन साहित्य में जिस नीलमाधव को पुरी ले जाकर भगवान जगन्नाथ के रूप में स्थापित किया गया है, उसे इसी शबरीनारायण-सिंदूरगिरि क्षेत्र से पुरी ले जाने का उल्लेख 14 वीं शताब्दी के उड़िया कवि सरलादास ने किया है। इसी कारण शिवरीनारायण को छत्तीसगढ़ का जगन्नाथ पुरी कहा जाता है और शिवरीनारायण दर्शन के बाद राजिम का दर्शन करना आवश्यक माना गया है क्योंकि राजिम में ’’साक्षी गोपाल‘‘ विराजमान हैं। कदाचित् इसीकारण यहां के मेले को ‘‘छत्तीसगढ़ का कुंभ‘‘ कहा जाता है जो प्रतिवर्ष लगता है।
गुप्तधाम :-
चारों दिशाओं में अर्थात् उत्तर में बद्रीनाथ, दक्षणि में रामेश्वरम् पूर्व में जगन्नाथपुरी और पश्चिम में द्वारिकाधाम स्थित है लेकिन मध्य में ‘‘गुप्तधाम‘‘ के रूप में शिवरीनारायण स्थित है। इसका वर्णन रामावतार चरित्र और याज्ञवलक्य संहिता में मिलता है। यह नगर सतयुग में बैकुंठपुर, त्रेतायुग में रामपुर, द्वापरयुग में विष्णुपुरी और नारायणपुर के नाम से विख्यात् था जो आज शिवरीनारायण के नाम से चित्रोत्पला-गंगा (महानदी) के तट पर कलिंग भूमि के निकट देदिप्यमान है। यहां सकल मनोरथ पूरा करने वाली मां अन्नपूणाZ, मोक्षदायी भगवान नारायण, लक्ष्मीनारायण, चंद्रचूढ़ और महेश्वर महादेव, केशवनारायण, श्रीराम लक्ष्मण जानकी, जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा से युक्त श्री जगदीश मंदिर, राधाकृष्ण, काली और मां गायत्री का भव्य और आकर्षक मंदिर है। यहां की महात्म्य का वर्णन पंडित हीराराम त्रिपाठी द्वारा अनुवादित शबरीनारायण माहात्म्य में किया गया है:-
शबरीनारायण पुरी क्षेत्र शिरोमणि जान
याज्ञवलक्य व्यासादि ऋषि निज मुख करत बखान।
कियो संहिता संस्कृत, याज्ञवलक्य मति धीर
भरद्वाज मुनिसो कहो देव सरित के तीर।
सुयश सुखद श्रीराम के सनत होत आनंद
उदाहरण भाषा रच्यो द्वजि हीरा मतिमंद।
शबरीनारायण मंदिर :-
यहां के प्राचीन मंदिरों और मूर्तियों की भव्यता और अलौकिक गाथा अपनी मूलभूत संस्कृति का शाश्वत रूप प्रकट कर रही है, जो प्राचीनता की दृष्टि से अद्वतिय है। 8-9 वीं शताब्दी की मूर्तियों को समेटे मंदिर एक कलात्मक नमूना है, जिसमें उस काल की कारीगरी आज भी देखी जा सकती है। 172 फीट ऊंचा, 136 फीट परिधि और शिखर में 10 फीट का स्वर्णिम कलश के कारण कदाचित् इसे ‘‘बड़ा मंदिर‘‘ कहा जाता है। वास्तव में यह शबरीनारायण मंदिर है। यह उत्तर भारतीय आर्य शिखर शैली का उत्तम उदाहरण है। इसका प्रवेश द्वार सामान्य कलचुरि कालीन मंदिरों से भिन्न है। प्रवेश द्वार की शैलीगत समानता नांगवंशी मंदिरों से अधिक है। वर्तमान मंदिर जीर्णोद्धार के कारण नव कलेवर में दृष्टिगत होता है। इस मंदिर के गर्भगृह में दीवारों पर चित्र शैली में कुछ संकेत भी दृष्टिगत होता है। कारीगरों का यह सांकेतिक शब्दावली भी हो सकता है ? प्राचीन काल में यहां पर एक बहुत बड़ा जलस्रोत था और इसे बांधा गया है। जलस्रोत को बांधने के कारण मंदिर का चबूतरा 100X100 मीटर का है। जलस्रोत भगवान नारायण के चरणों में सिमट गया है। इसे ‘‘रोहिणी कुण्ड‘‘ कहा जाता है। इस कुंड की महत्ता कवि बटुकसिंह चौहान के शब्दों में :-
रोहिणी कुण्ड एक धाम है, है अमृत का नीर
बंदरी से नारी भइ, कंचन भयो शरीर।
जो कोइ नर जाइके, दरशन करे वही धाम
बटुक सिंह दरशन करी, पाये परम पद निर्वाण।
इस मंदिर के गर्भ द्वार के पार्श्व में वैष्णव द्वारपालों शंख पुरूष और चक्र पुरूष की आदमकद प्रतिमा है। इसी आकार प्रकार की मूर्तियां खरौद के शबरी मंदिर के गर्भगृह में भी है। द्वार शाखा पर बारीक कारीगरी और शैलीगत लक्षण की भिन्नता दर्शनीय है। गर्भगृह के चांदी के दरवाजा को ‘‘केशरवानी महिला समाज‘‘ द्वारा बनवाया गया है। इसे श्री देवालाल केशरवानी ने जीवन मिस्त्री के सहयोग से कलकत्ता से सन् 1959 में बनवाया था। गर्भगृह में भगवान नारायण पीताम्बर वस्त्र धारण किये शंख, चक्र, पद्म और गदा से सुसज्जित स्थित हैं। साथ ही दरवाजे के पास परिवर्ती कालीन गरूड़ासीन लक्ष्मीनारायण की बहुत ही आकर्षक प्रतिमा है जिसे जीर्णोद्धार के समय भग्न मंदिर से लाकर रखा गया है। मंदिर के बाहर गरूण जी और मां अम्बे की प्रतिमा है। मां अम्बे की प्रतिमा के पीछे भगवान कल्की अवतार की मूर्ति है जो शिवरीनारायण के अलावा जगन्नाथ पुरी में है। श्री प्रयागप्रसाद और श्री जगन्नाथप्रसाद केशरवानी ने मंदिर में संगमरमर लगवाकर सद्कार्य किया है। मंदिर में सोने का कलश क्षेत्रीय कोष्टा समाज के द्वारा सन् 1952 में लगवाया गया है।
श्री प्यारेलाल गुप्त ने प्राचीन छत्तीसगढ़ में लिखा है :-
‘‘शिवरीनारायण का प्राचीन नाम शौरिपुर होना चाहिये। शौरि भगवान विष्णु का एक नाम है और शौरि मंडप के निर्माण कराये जाने का उल्लेख एक तत्कालीन शिलालेख में हुआ है।‘‘ इस मंदिर के निर्माण के सम्बंध में भी अनेक किंवदंतियां प्रचलित है। इतिहासकार इस मंदिर का निर्माण किसी शबर राजा द्वारा कराया गया मानते हैं। सुप्रसिद्ध साहित्यकार और भोगहापारा (शिवरीनारायण) के मालगुजार पंडित मालिकराम भोगहा ने भी इस मंदिर का निर्माण किसी शबर के द्वारा कराया गया मानते हैं।
तंत्र मंत्र की साधना स्थली :-
उड़ीसा के प्रसिद्ध कवि सरलादास ने चौदहवीं शताब्दी के प्रारंभ में लिखा है :-‘‘भगवान जगन्नाथ स्वामी को शिवरीनारायण से लाकर यहां प्रतिष्ठित किया गया है।‘‘ छतीससगढ़ के सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरि ठाकुर ने अपने एक लेख-‘‘शिवरीनारायण जगन्नाथ जी का मूल स्थान है‘‘ में लिखा है:-‘‘इतिहास तर्क सम्मत विश्लेषण से यह तथ्य उजागर होता है कि शिवरीनारायण से भगवान जगन्नाथ को पुरी कोई ब्राह्मण नहीं ले गया। वहां से उन्हें हटाने वाले इंद्रभूति थे। वे वज्रयान के संस्थापक थे।‘‘ डा. एन. के. साहू के अनुसार- ‘‘संभल (संबलपुर) के राजा इंद्रभूति जिन्होंने दक्षणि कोसल के अंधकार युग (लगभग 8-9वीं शताब्दी) में राज्य किया था। वे बौद्ध धर्म के वज्रयान सम्प्रदाय के प्रवर्तक थे। इंद्रभूति पद्मवज्र (सरोरूहवज्र) के शिष्य अनंगवज्र के शिष्य थे। कविराज गोपीनाथ महापात्र इंद्रभूति को ‘‘उड्डयन सिद्ध अवधूत‘‘ कहा है। सहजयान की प्रवर्तिका लक्ष्मीकरा इन्हीं की बहन थी। इंद्रभूति के पुत्र पद्मसंभव ने तिब्बत जाकर लामा सम्प्रदाय की स्थापना की थी। इंद्रभूति ने अनेक ग्रंथ लिखा है लेकिन ‘‘ज्ञानसिद्ध‘‘ उनका सवार्धिक प्रसिद्ध तांत्रकि ग्रंथ है जो 717 इसवी में प्रकाशित हुआ है। उन्होंने इस ग्रथ में भगवान जगन्नाथ की बार बार वंदना की है। इसके पहले जगन्नाथ जी को भगवान के रूप में मान्यता नहीं मिली थी। वे उन्हें भगवान बुद्ध के रूप में देखते थे और वे उनके सम्मुख बैठकर तंत्र मंत्र की साधना किया करते थे। ‘‘इवेज्र तंत्र साधना‘‘ और ‘‘शाबर मंत्र‘‘ के समन्वय से उन्होंने वज्रयान सम्प्रदाय की स्थापना की। शाबर मंत्र साधना और वज्रयान तंत्र साधना की जन्म भूमि दक्षणि कोसल ही है।‘‘ डा. जे.पी. सिंहदेव के अनुसार-‘‘इंद्रभूति शबरीनारायण से भगवान जगन्नाथ को सोनपुर के पास सम्बलाइ पहाड़ी में स्थित गुफा में ले गये थे। उनके सम्मुख बैठकर वे तंत्र मंत्र की साधना किया करते थे। शबरी के इष्टदेव जगन्नाथ जी को भगवान के रूप में मान्यता दिलाने का यश भी इंद्रभूति को ही है।‘‘ आसाम के ‘‘कालिका पुराण‘‘ में उल्लेख है कि तंत्रविद्या का उदय उड़ीसा में हुआ और भगवान जगन्नाथ उनके इष्टदेव थे।
मंदिरों की नगरी :-
शिवरीनारायण में अन्यान्य मंदिर हैं जो विभिन्न कालों में निर्मित हुए हैं। चूंकि यह नगर विभिन्न समाज के लोगों का सांस्कृतिक तीर्थ है अत: उन समाजों द्वारा यहां मंदिर निर्माण कराया गया है। यहां अधिकांश मंदिर भगवान विष्णु के अवतारों के हैं। कदाचित् इसी कारण इस नगर को वैष्णव पीठ माना गया है। इसके अलावा यहां शैव और शाक्त परम्परा के प्राचीन मंदिर भी हैं। इन मंदिरों में निम्नलिखित प्रमुख हैं:-
केशवनारायण मंदिर :-
नारायण मंदिर के पूर्व दिशा में पश्चिमाभिमुख सर्व शक्तियों से परिपूर्ण केशवनारायण की 11-12 वीं सदी का मंदिर है। इष्ट और पत्थर बना ताराकृत संरचना है जिसके प्रवेश द्वार पर विष्णु के चौबीस रूपों का अंकन बड़ी सफाई के साथ किया गया है। जबकि द्वार के उपर शिव की मूर्ति है। अन्य परम्परागत स्थापत्य लक्षणों के साथ गर्भगृह में दशावतार विष्णु की मानवाकार प्रतिमा है। यह मंदिर कलचुरि कालीन वास्तुकला का अनुपम उदाहरण है। यहां एक छोटा अंतराल है, इसके बाद गर्भगृह। मंदिर पंचरथ है और मंदिर की द्वार शाखा पर गंगा-यमुना की मूर्ति है, साथ ही दशावतारों का चित्रण हैं। इस मंदिर में शैव और वैष्णव परंपरा की मिश्रति संरचना देखने को मिलती है।
चंद्रचूड़ महादेव :-
केशवनारायण मंदिर के वायव्य दिशा में चेदि संवत् 919 में निमिZत और छत्तीसगढ़ के ज्योर्तिलिंग के रूप में विख्यात् ‘‘चंद्रचूड़ महादेव‘‘ का एक प्राचीन मंदिर है। इस मंदिर के द्वार पर एक विशाल नंदी की मूर्ति है। शिवलिंग की पूजा-अर्चना करते राज पुरूष और रानी की हाथ जोड़े पद्मासन मुद्रा में प्रतिमा है। नंदी की मूर्ति के बगल में किसी सन्यासी की मूर्ति है। मंदिर के बाहरी दीवार पर एक कलचुरि कालीन चेदि संवत् 919 का एक शिलालेख है। इस शिलालेख का निर्माण कुमारपाल नामक किसी कवि ने कराया है और भोग राग आदि की व्यवस्था के लिए चिचोली नामक गांव दान में दिया है। पाली भाषा में लिखे इस शिलालेख में रतनपुर के राजाओं की वंशावली दी गयी है। इसमें राजा पृथ्वीदेव के भाइ सहदेव, उनके पुत्र राजदेव, पौत्र गोपालदेव और प्रपौत्र अमानदेव के पुण्य कर्मो का उल्लेख किया गया है। इस मंदिर की प्राचीन संरचना नश्ट हो चुकी है और नवीन संरचना में बिखरी मूर्तियों को दीवारों में खचित करके दृष्टब्य है। बहुत संभव है कि इस मंदिर में खचित शिलालेख भी कहीं से लाकर दीवार में खचित कर दी गयी हो?
राम लक्ष्मण जानकी मंदिर :-
चंद्रचूड़ महादेव मंदिर के ठीक उत्तर दिशा में श्रीराम लक्ष्मण जानकी का एक भव्य मंदिर है जिसका निर्माण महंत अर्जुदास की प्रेरणा से पुत्र प्राप्ति के पश्चात् अकलतरा के जमींदार श्री सिदारसिंह ने कराया था। इसी प्रकार केंवट समाज द्वारा श्रीराम लक्ष्मण जानकी मंदिर का निर्माण रामघाट के पास लक्ष्मीनारायण मंदिर के पास कराया गया है। इस मंदिर परिसर में भगवान विष्णु के चौबीस अवतारों की सुंदर मूर्तियां दर्शनीय हैं। इस मंदिर के बगल में संवत् 1997 में निर्मित श्रीरामजानकी-गुरू नानकदेव मंदिर का मंदिर है। इस मंदिर के सर्वराकार पंडित विश्वेश्वरनारायण द्विवेदी हैं।
महेश्वर महादेव और शीतला माता मंदिर :-
महानदी के तट पर छत्तीसगढ़ के सुप्रसिद्ध मालगुजार श्री माखनसाव के कुलदेव महेश्वर महादेव और कुलदेवी शीतला माता का भव्य मंदिर, बरमबाबा की मूर्ति और सुन्दर घाट है। सुप्रसिद्ध साहित्यकार पंडित मालिकराम भोगहा द्वारा लिखित श्रीशबरीनारायण माहात्म्य के अनुसार इस मंदिर का निर्माण संवत् 1890 में माखन साव के पिता श्री मयाराम साव और चाचा श्री मनसाराम और सरधाराम साव ने कराया है। माखन साव भी धार्मिक, सामाजिक और साधु व्यक्ति थे। ठाकुर जगमोहनसिंह ने ‘सज्जनाष्टक‘ में उनके बारे में लिखा है। उनके अनुसार माखनसाव क्षेत्र के पहले व्यक्ति थे जिन्होंने बद्रीनाथ और रामेश्वरम् की यात्रा की और 80 वर्ष की सुख भोगा। उन्होंने महेश्वर महादेव और शीतला माता मंदिर का जीर्णोद्धार कराया। उनके पौत्र श्री आत्माराम साव ने मंदिर परिसर में संस्कृत पाठशाला का निर्माण कराया और सुन्दर घाट और बाढ़ से भूमि का कटाव रोकने के लिए मजबूत दीवार का निर्माण कराया। इस घाट में अस्थि विसर्जन के लिए एक कुंड बना है। इस घाट में अन्यान्य मूर्तियां जिसमें शिवलिंग और हनुमान जी प्रमुख है, के अलावा सती चौरा बने हुये हैं।
लक्ष्मीनारायण-अन्नपूर्णा मंदिर :-
नगर के पश्चिम में मैदानी भाग जहां मेला लगता है, से लगा हुआ लक्ष्मीनारायण मंदिर है। मंदिर के बाहर जय विजय की मूर्ति माला लिए जाप करने की मुद्रा में है। सामने गरूड़ जी हाथ जोड़े विराजमान हैं। गणेश जी भी हाथ में माला लिए जाप की मुद्रा में हैं। मंदिर की पूर्वी द्वार पर माता शीतला, काल भैरव विराजमान हैं। वहीं दक्षणि द्वार पर शेर बने हैं। भीतर मां अन्नपूर्णा की ममतामयी मूर्ति है जो पूरे छत्तीसगढ़ में अकेली है। उन्हीं की कृपा से समूचा छत्तीसगढ़ ‘‘धान का कटोरा‘‘ कहलाता है। नवरात्रि में यहां ज्योति कलश प्रज्वलित की जाती है। बिलाइगढ़ के जमींदार ने इस मंदिर का जीर्णोद्धार खरौद के गिर गोस्वामी मठ के महंत हजारगिरि की प्रेरणा से कराया था। जीर्णोद्धार में लक्ष्मीनारायण और अन्नपूर्णा मंदिर एक ही अहाता के भीतर आ गया जबकि दोनों मंदिर का दरवाजा आज भी अलग अलग है। लक्ष्मीनारायण मंदिर का दरवाजा पूर्वाभिमुख है जबकि अन्नपूर्णा मंदिर का दरवाजा दक्षिणाभिमुख है। मंदिर परिसर में दक्षणिमुखी हनुमान जी का मंदिर भी है।
राधा-कृष्ण मंदिर :-
मां अन्नपूर्णा मंदिर के पास मरार-पटेल समाज के द्वारा राधा-कृष्ण मंदिर और उससे लगा समाज का धर्मशाला का निर्माण कराया गया है। मंदिर के उपरी भाग में शिवलिंग स्थापित है। इसी प्रकार लोक निर्माण विभाग के विश्राम गृह के सामने मथुआ मरार समाज द्वारा राधा-कृष्ण का पूर्वाभिमुख मंदिर बनवाया गया है।
सिंदूरगिरि-जनकपुर :-
मेला मैदान के अंतिम छोर पर साधु-संतों के निवासार्थ एक मंदिर है। रथयात्रा में भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा जी यहीं आकर नौ दिन विश्राम करते हैं। इसीलिए इसे जनकपुर कहा जाता है। प्राचीन साहित्य में जिस सिंदूरगिरि का वर्णन मिलता है, वह यही है। इसे ‘‘जोगीडिपा‘‘ भी कहते हैं। क्यों कि यहां ‘‘योगियों‘‘ का वास था। महंत अर्जुनदास की प्रेरणा से भटगांव के जमींदार ने यहां पर योगियों के निवासार्थ भवन का निर्माण संवत् 1927 में कराया। स्वामी अजुनदास की प्रेरणा से संवत् 1928 में श्री बैजनाथ साव, चक्रधर, बोधराम और अभयराम ने यहां एक हनुमान जी का भव्य मूर्ति का निर्माण कराया। द्वार पर एक शिलालेख है जिसमें हनुमान मंदिर के निर्माण कराने का उल्लेख है। जनकपुर में एक बहुत सुंदर बगीचा था जिसके निर्माण और देखरेख महंत अर्जुरनदास द्वारा कराया जाता था। बाद के महंतों ने भी इस परंपरा का निर्वहन किया। आज देखरेख के अभाव में यहां का भवन जर्जर हो गया है, बाउंड्री की दीवार धसक गयी है और बगीचा नष्ट हो गया है। साल में दो बार क्रमश: रथयात्रा और दशहरा में लोग यहां आते हैं, शेष दिनों में यहां कोइ नहीं आता। लेकिन हनुमान जी का मंदिर अच्छी हालत में है।
काली और हनुमान मंदिर :-
शबरी सेतु के पास काली और हनुमान जी का भव्य और आकर्षक मंदिर दर्शनीय है।
शिवरीनारायण मठ :-
नारायण मंदिर के वायव्य दिशा में एक अति प्राचीन वैष्णव मठ है जिसका निर्माण स्वामी दयारामदास ने नाथ सम्प्रदाय के तांत्रिकों से इस नगर को मुक्त कराने के बाद की थी। रामानंदी वैष्णव सम्प्रदाय के इस मठ के वे प्रथम महंत थे। तब से आज तक 14 महंत हो चुके हैं। वर्तमान में इस मठ के श्री रामसुन्दरदास जी महंत हैं। खरौद के लक्ष्मणेश्वर मंदिर के चेदि संवत् 933 के शिलालेख में मंदिर के दक्षणि दिशा में संतों के निवासार्थ एक मठ के निर्माण कराये जाने का उल्लेख है। इस मठ के बारे में सन 1867 में जे. डब्लू. चीजम साहब बहादुर ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि इस मठ की व्यवस्था के लिए माफी गांव हैहयवंशी राजाओं के समय से दी गयी है और इस पर इसके पूर्व और बाद में किसी ने हस्तक्षेप नहीं किया है। संवत् 1915 में डिप्टी कमिश्नर इलियट साहब ने महंत अर्जुनदास के अनुरोध पर 12 गांव की मालगुजारी मंदिर और मठ के राग भोगादि के लिये प्रदान किया।
जगन्नाथ एवं अन्य मंदिर :-
मठ परिसर में संवत् 1927 में महंत अर्जुनदास की प्रेरणा से भटगांव के जमींदार राजसिंह ने एक जगदीश मंदिर बनवाया जिसे उनके पुत्र चंदनसिंह ने पूरा कराया। इस मंदिर में भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा के अलावा श्रीराम लक्षमण और जानकी जी की मनमोहक मूर्ति है। परिसर में हनुमान जी और सूर्यदेव की मूर्ति है। सूर्यदेव के मंदिर को संवत् 1944 में रायपुर के श्री छोगमल मोतीचंद्र ने बनवाया। इसीप्रकार हनुमानजी के मंदिर को लवन के श्री सुधाराम ब्राह्मण ने संवत् 1927 में स्वामी जी की प्रेरणा से पुत्र प्राप्ति के बाद बनवाया। इसके अलावा महंतों की समाधि है जिसे संवत् 1929 में बनवाया गया है। यहां हमेशा भजन कीर्तन आदि होते रहता है, भारतेन्दुयुगीन साहित्यकार पंडित हीरराराम त्रिपाठी भी गाते हैं :-
चित्रउत्पला के निकट श्री नारायण धाम,
बसत संत सज्जन सदा शबरीनारायण ग्राम।
होत सदा हरिनाम उच्चारण, रामायण नित गान करै,
अति निर्मल गंग तरंग लखै उर आनंद के अनुराग भरै।
शबरी वरदायक नाथ विलोकत जन्म अपार के पाप हरे,
जहां जीव चारू बखान बसै सहज भवसिंधु अपार तरे।।
8 टिप्पणियाँ
अच्छी जानकारी मिली. आभार!
जवाब देंहटाएंInformative.
जवाब देंहटाएंAlok Kataria
महत्वपूर्ण जानकारी है शबरी नारायण के विषय में। चित्र से लेख का महत्व बडा है।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद अश्विनी जी
जवाब देंहटाएंइस सुंदर जानकारी के लिए बहुत बहुत धन्यवाद हमारे भारत देश में ऐसी और भी बहुत सी प्राचीन मंदिर और स्थापत्य कला के बेहतरीन नमूने मौजूद है पर जानकारियों का अभाव हो जाता है.....आपने बहुत बढ़िया और विस्तार पूर्वक जानकारी दी....धन्यवाद
जवाब देंहटाएंप्रस्तुति बहुत सुन्दर है।
जवाब देंहटाएंसाहित्य शिल्पी पर आलेख और प्रस्तुतियों से कभी शिकायत नहीं रही है। आपकी नयी वेबसाईट बहुत सुन्दर है। हिन्दी वेबसाईटों में एसी सुनियोजित साईट कोई नहीं है। इसके किये शुभकामनायें।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा आलेख, बधाई
जवाब देंहटाएंआपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.