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काव्य का रचना शास्त्र- ४१: हो अर्थान्तरन्यास में, समर्थ्य-समर्थक भाव - आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'


करे एक के समर्थन का जब अन्य प्रयास|
अलंकार का नाम हो, तब अर्थान्तरन्यास॥

Kaavya ka RachnaShashtra by Sanjeev Verma 'Salil'रचनाकार परिचय:-

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' नें नागरिक अभियंत्रण में त्रिवर्षीय डिप्लोमा, बी.ई., एम.आई.ई., अर्थशास्त्र तथा दर्शनशास्त्र में एम.ए., एल.एल.बी., विशारद, पत्रकारिता में डिप्लोमा, कंप्युटर ऍप्लिकेशन में डिप्लोमा किया है।
आपकी प्रथम प्रकाशित कृति 'कलम के देव' भक्ति गीत संग्रह है। 'लोकतंत्र का मकबरा' तथा 'मीत मेरे' आपकी छंद मुक्त कविताओं के संग्रह हैं। आपकी चौथी प्रकाशित कृति है 'भूकंप के साथ जीना सीखें'। आपनें निर्माण के नूपुर, नींव के पत्थर, राम नम सुखदाई, तिनका-तिनका नीड़, सौरभ:, यदा-कदा, द्वार खड़े इतिहास के, काव्य मन्दाकिनी २००८ आदि पुस्तकों के साथ साथ अनेक पत्रिकाओं व स्मारिकाओं का भी संपादन किया है।
आपको देश-विदेश में १२ राज्यों की ५० सस्थाओं ने ७० सम्मानों से सम्मानित किया जिनमें प्रमुख हैं : आचार्य, २०वीन शताब्दी रत्न, सरस्वती रत्न, संपादक रत्न, विज्ञानं रत्न, शारदा सुत, श्रेष्ठ गीतकार, भाषा भूषण, चित्रांश गौरव, साहित्य गौरव, साहित्य वारिधि, साहित्य शिरोमणि, काव्य श्री, मानसरोवर साहित्य सम्मान, पाथेय सम्मान, वृक्ष मित्र सम्मान, आदि।
वर्तमान में आप अनुविभागीय अधिकारी मध्य प्रदेश लोक निर्माण विभाग के रूप में कार्यरत हैं।
हो अर्थान्तरन्यास में, समर्थ्य-समर्थक भाव|
'सलिल' एक के साथ जब, दूजा तभी निभाव॥

जब किसी सामान्य बात के समर्थन में विशेष बात या किसी विशेष बात के समर्थन में सामान्य बात कही जाए अर्थात जब सामान्य अर्थ का समर्थन विशेष अर्थ से या विशेष अर्थ का समर्थन सामान्य अर्थ से किया जाये अथवा जब दो काव्यांशों में समर्थ्य-समर्थक भाव हो तब अर्थान्तरन्यास अलंकार होता है|

निदर्शना अलंकार की ही तरह अर्थान्तरन्यास अलंकार में भी व्यापार साम्य होता है, पर प्रथम में बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव होता है जबकि द्वितीय में पुष्टि या समर्थन का भाव होता है|

अर्थान्तार्न्यास के निम्न दो प्रकार हैं:

अ. सामान्य का विशेष से समर्थन:
१.
जाहि मिले सुख होत है, तिहि बिछुरे दुःख होइ|
सूर-उदय फूलै कमल, ता बिनु सकुचै सोइ॥

यहाँ पहले एक सामान्य बात कही गयी है कि जिस व्यक्ति के मिलने से सुख होता है उसके बिछुड़ने से दुःख होता है| इस सामान्य बात के समर्थन में एक विशेष बात कही गयी है कि जिस प्रकार सूर्य के उगने पर कमल सुख से खिल जाता है तथा सूर्य के अस्त होने पर कमल संकुचित हो जाता है||
२.
अति परिचय ते होत है, अवसि अनादर भाय|
मलियागिरि की भीलनी, चन्दन देत जराय॥

यहाँ भी पहले एक सामान्य कथन है कि अति घनिष्ठ परिचय होने पर अनादर का भाव हो जाता है| बाद में इसके समर्थन में तर्क है कि जिस प्रकार मलय पर्वत (जहाँ चन्दन का बाहुल्य है) की भीलनी चन्दन की लकड़ी को जला देती है|

३.
जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करि सकत कुसंग?
चन्दन विष व्यापै नहीं, लिपटे रहत भुजंग॥

४.
कछु कहि नीच न छेडिये, भलो न वाको संग।
पाथर डारे कीच में, उछार बिगारत अंग॥

५.
जीवन में सुख-दुःख निरंतर आते-जाते रहते हैं,
सुख तो सभी भोग लेते हैं, दुःख धीर ही सहते हैं।
मनुज दुग्ध से, दनुज रुधिर से, अमर सुधा से जीते हैं.
किन्तु हलाहल भवसागर का, शिवशंकर ही पीते हैं॥

६.
बड़े सनेह लघुन पर करहीं।
गिरि निज सिरन सदा तृन धरहीं॥

७.
जो रहीम ओछो बढे, तो अति ही इतराय।
प्यादा तें फरजी भयो, टेढो-टेढो जाय॥

८.
जो जाको गुन जानही, सो तेहि आदर देत।
कोयल अम्बहि हेत है, काग निम्बोरी हेत॥

९.
संगति सुमति न पावहीं, परे कुमति के धंध।
राखो मेलि कपूर में, हींग न होइ सुगंध॥


आ. विशिष्ट का सामान्य से समर्थन:
१.
दियो अभय अमरन्ह, कियी हर हलाहल पान।
पर-उपकारन हित सहै, कष्ट कहा न महान॥

यहाँ पहले भगवन शंकर के संबंध में एक विशेष बात कही गयी है कि शंकर जी ने समुद्र मंथन के समय, निकले हुए हलाहल विष का पान कर देवताओं को अभय दान दिया हालाँकि इससे उन्हें महान कष्ट सहना पड़ा। इसके समर्थन में एक अत्यंत सामान्य बात कही गयी है कि महापुरुष परोपकार के लिए कौन सा कष्ट नहीं सहते?
२.
भूरी चढे नभ पौन प्रसंग ते, कीच भई जल-संगति पाई।
फूल मिलै नृप पै पहुंचे, क्रीमी-काँटन संग अनेक विथाई॥
चन्दन संग कुदारु सुगंध व्है, नीव प्रसंग लहै करुवाई।
दास जू देखो सही सब ठौरन, संगति को गुन-दोष न जाई॥

३.
शरणागत को कभी नहीं, तजते हैं श्री राम।
चरण-शरण पाकर 'सलिल', भूलो फ़िक्र तमाम॥

४.
गए कारसेवा निमित, ढाँचा फेंका तोड़।
लेती है विधि हाथ में, भीड़ लगाकर होड़॥

५.
अब बोलें नाता नहीं, तब लेते थे श्रेय।
स्वार्थ-साधना ही 'सलिल', राजनीति का ध्येय॥

६.
नब्बे पा अनजान हैं, नौ पा पाते मान।
आरक्षण में योग्यता का न 'सलिल' सम्मान॥

७.
बस में जा बेबस हुए, लौटे खाली हाथ।
उसे न मिलता मान जो, उठा न रखता माथ॥

८.
दो आतंकी मारते, सौ सज्जनजन घेर।
'सलिल' एक्य विजयी रहे, जो न एक वे ढेर॥

अर्थान्तरन्यास महाकवि रहीम का प्रिय अलंकार रहा है।

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9 टिप्पणियाँ

  1. सुंदर, सरल शब्दावली में मूल सिधान्तों को वो भी दोहावली में एल सुंदर संगम है. बहुत कुछ इससे सीखने को मिलता है 'सलिल' जी के अनुभवी कलम के कथन से
    सादर

    देवी नागरानी

    जवाब देंहटाएं
  2. अर्थान्तरन्यास में, समर्थ्य-समर्थक भाव|
    'सलिल' एक के साथ जब, दूजा तभी निभाव॥

    सरल विश्लेषण

    जवाब देंहटाएं
  3. अर्थान्तरन्यास में, समर्थ्य-समर्थक भाव|
    'सलिल' एक के साथ जब, दूजा तभी निभाव॥

    सरल विश्लेषण

    जवाब देंहटाएं
  4. उपयोगी जानकारी. प्रिंट लेकर पढ़ना होगा.

    जवाब देंहटाएं
  5. संजीव जी पुन: एक नये और प्रयोग में रोचक अलंकार से परिचित कराने का धन्यवाद।

    जवाब देंहटाएं
  6. आपके दोहे बहुत अच्छी तरह परिभाषा गढते हैं। एक और संग्रहणीय आलेख के लिये आभार।

    जवाब देंहटाएं
  7. संगति सुमति न पावहीं, परे कुमति के धंध।
    राखो मेलि कपूर में, हींग न होइ सुगंध॥

    कृपया इस दोहे का अर्थ बताए।

    जवाब देंहटाएं

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